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Showing posts from October, 2021

दो पल के फ़साने 'सुब्रत' दिल को लुभा रहे है...

इक आह सी उठती है सीने में जब धड़कता है मेरा दिल लोग कहते मोहब्बत-सा है कुछ क्या हम झट से तौबा कर लेते है मगर है हमको भी मालूम कहीं और चंद्रमा उस अनुराग को चौदहवीं की रात में जगा रहा है फूल बूटे झूम रहे है... चाँदनी शबनम से टकरा रही है....पायल की रागिनी दिल को लुभा रही है तौबा करने को जो हाथ कान पे गए थे वो दिल पे आ गए है शायद इसी तरह से हम बर्बादी के रास्ते मंज़िल को जा रहे है दो पल के फ़साने ‘सुब्रत’ दिल को लुभा रहे है..... ~©अनुज सुब्रत

हम है कि तन्हाइयों से दिल लगा रहे है....

  वो है कि हमें देख के शर्मा रहे है हम है कि तन्हाइयों से दिल लगा रहे है   उसकी हर इक बात का भरम रख हम जैसे फिर से धोखा खा रहे है   उसके संदली बदन का क्या कहना ख़्वाह - मख़ाह वो चाँदनी में नहा रहे है   उसके तबस्सुम से है रिज़्क़ मेरा वो उदासियों को घर बना रहे है   हम जैसे आशिक़ उसके ‘सुब्रत’ उसकी यादों में मरे जा रहे है..... ~©अनुज सुब्रत