तेरा इश्क़ भी झूठा निकला है
रहने की बात करती थी वो क़यामत तक मेरे साथ
देखों, आज उसके घर से उसका जनाज़ा निकला है
कितना बदनसीब है सुब्रत, चेहरा तक नही देखा उसका
चार कंधे की ज़रुरत है मेरा दो ही निकला है
उसके मौत की नमाज़ भी अदा नही की मैंने
रूह कह रही है सुब्रत तू कितना खुदगर्ज़ निकला है
अलम भी आया है अब यक़ीनन मेरे आलम में
इस चेहरे का नूर भी अब दम तोड़ निकला है
दवा-ए-आरज़ू कर दो तुम मेरे आरज़ू की
दिल अब उसको पाने को बेहिसाब निकला है
ख़िलवतो से अब दोस्ती इस क़दर हो गयी है रफ़ीक़
मयस्सर ज़िंदगी का ताबीर, फ़कत यायावर निकला है
~ अनुज सुब्रत
शब्दार्थ:-
अलम- दुःख, शोक
आलम- संसार, दुनिया
नूर- प्रकाश
ख़िलावतो- एकांत जगह
मयस्सर- उपलब्ध
रफ़ीक़- दोस्त
ताबीर- अर्थ
फ़कत- सिर्फ, केवल
यायावर- बंजारा
Nice poetry
ReplyDeleteThank you😊😊😊
DeleteGood blog post
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