इक आह सी उठती है सीने में
जब धड़कता है मेरा दिल
लोग कहते मोहब्बत-सा है कुछ क्या
हम झट से तौबा कर लेते है
मगर है हमको भी मालूम कहीं
और चंद्रमा उस अनुराग को चौदहवीं की रात में जगा रहा है
फूल बूटे झूम रहे है... चाँदनी शबनम से टकरा रही है....पायल की रागिनी दिल को लुभा रही है
तौबा करने को जो हाथ कान पे गए थे वो दिल पे आ गए है
शायद इसी तरह से हम बर्बादी के रास्ते मंज़िल को जा रहे है
दो पल के फ़साने ‘सुब्रत’ दिल को लुभा रहे है.....
~©अनुज सुब्रत
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