वो है कि हमें देख के शर्मा रहे है
हम है कि तन्हाइयों से दिल लगा रहे है
उसकी हर इक बात का भरम रख
हम जैसे फिर से धोखा खा रहे है
उसके संदली बदन का क्या कहना
ख़्वाह-मख़ाह
वो चाँदनी में नहा रहे है
उसके तबस्सुम से है रिज़्क़ मेरा
वो उदासियों को घर बना रहे है
हम जैसे आशिक़ उसके ‘सुब्रत’
उसकी यादों में मरे जा रहे है.....
~©अनुज सुब्रत
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