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इक होड़ लगी थी सबको आगे जाना था....

इक होड़ लगी थी सबको आगे जाना था हम वहीं रुक गए शायद मेरा वहीं ठिकाना था मैंने देखा तो देखा क्या इक गुलशन इक ख़ुशबू और इक ये ज़ालिम ज़माना था आधा भी लिख दे कैसे कोई उसको मैंने देखा था जिसको वो यकसर दीवाना था कैसे करते इज़हार-ए-मोहब्बत हम तुमसे नाहीं कोई ठिकाना था नाहीं आब-ओ-दाना था लाख लगाई तदबीरें हमने ग़म की निजात को बस इक मेरा सर था बस इक तेरा शाना था जपते जपते पी का नाम रात हुई भोर हुई जागे तो पाए बिखरा तस्बीह का दाना था हम क्या बतलाए अपनी क़िस्मत का तक़ाज़ा ‘सुब्रत’ उसको खोना था ‘सुब्रत’ उसको पाना था.... ~©अनुज सुब्रत
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कितने पाकीज़ा थे हम इब्तिदा-ए-इश्क़ में.....

  कितने पाकीज़ा थे हम इब्तिदा-ए-इश्क़ में पुरकार क्यों हो तुम पुरकार क्यों हूँ मैैं...... ~©अनुज सुब्रत

जिससे करता था मैं मुहब्बत सनम......

  जिससे करता था मैं मुहब्बत सनम निकली वो बेवफ़ा बे - मुरव्वत सनम   ये सुरमा ये निगाहें ये संदली बदन फ़क़त मुझको है उससे अदावत सनम   याद आता है तेरी गलियों का सफ़र तुम क़यामत सनम तुम क़यामत सनम   तुम तो दिल लुभा कर चली जाओगी मरता है तो मरे कोई ‘सुब्रत’ सनम...... ~© अनुज सुब्रत

तमन्ना भी है तुम्हारी और तुमको बता भी नहीं सकते......

  तमन्ना भी है तुम्हारी और तुमको बता भी नहीं सकते बहुत प्यार करते है तुमसे और तुमको पा भी नहीं सकते   यूँ अँधेरी रातों से पूछो क्या क्या है इस दिल में मेरे दिल का असरार हो तुम और तुमको छुपा भी नहीं सकते   अश्कों से लिखी वो आख़िरी ख़त भी हमने जला डाली उसमें क्या क्या लिखा था हम तुमको बता भी नहीं सकते   मोहब्बत में क्या क्या गुज़री है इस दिल पर सनम इस दिल पे पड़े छालों को हम तुमको दिखा भी नहीं सकते   इक तमन्ना थी कि तुमको इन हाथों से हम सजाया करेंगे हाथों में गजरा है ‘सुब्रत’ और तुमको सजा भी नहीं सकते..... ~©अनुज सुब्रत

दो पल के फ़साने 'सुब्रत' दिल को लुभा रहे है...

इक आह सी उठती है सीने में जब धड़कता है मेरा दिल लोग कहते मोहब्बत-सा है कुछ क्या हम झट से तौबा कर लेते है मगर है हमको भी मालूम कहीं और चंद्रमा उस अनुराग को चौदहवीं की रात में जगा रहा है फूल बूटे झूम रहे है... चाँदनी शबनम से टकरा रही है....पायल की रागिनी दिल को लुभा रही है तौबा करने को जो हाथ कान पे गए थे वो दिल पे आ गए है शायद इसी तरह से हम बर्बादी के रास्ते मंज़िल को जा रहे है दो पल के फ़साने ‘सुब्रत’ दिल को लुभा रहे है..... ~©अनुज सुब्रत

हम है कि तन्हाइयों से दिल लगा रहे है....

  वो है कि हमें देख के शर्मा रहे है हम है कि तन्हाइयों से दिल लगा रहे है   उसकी हर इक बात का भरम रख हम जैसे फिर से धोखा खा रहे है   उसके संदली बदन का क्या कहना ख़्वाह - मख़ाह वो चाँदनी में नहा रहे है   उसके तबस्सुम से है रिज़्क़ मेरा वो उदासियों को घर बना रहे है   हम जैसे आशिक़ उसके ‘सुब्रत’ उसकी यादों में मरे जा रहे है..... ~©अनुज सुब्रत

सियाह-रातों का सवेरा क्यों नहीं होता....

सियाह - रातों का सवेरा क्यों नहीं होता मेरा दिल अब मेरा क्यों नहीं होता   नशेमन को मेरे किसने उजाड़ दिया अब कहीं भी मेरा बसेरा क्यों नहीं होता   ज़िंदगी की तमन्ना कब थी याद नहीं ज़िंदगी अब तेरा भरोसा क्यों नहीं होता   मेरी उड़ान को क़फ़स देने वाले सुन ले तेरे साथ भी मेरे जैसा क्यों नहीं होता   आते जाते है लोग मेरे नसीब में ‘सुब्रत’ पर कोई भी शख़्स तुम - सा क्यों नहीं होता..... ~©अनुज सुब्रत