सियाह-रातों
का सवेरा क्यों नहीं होता
मेरा दिल अब मेरा क्यों नहीं होता
नशेमन को मेरे किसने उजाड़ दिया
अब कहीं भी मेरा बसेरा क्यों नहीं होता
ज़िंदगी की तमन्ना कब थी याद नहीं
ज़िंदगी अब तेरा भरोसा क्यों नहीं होता
मेरी उड़ान को क़फ़स देने वाले सुन ले
तेरे साथ भी मेरे जैसा क्यों नहीं होता
आते जाते है लोग मेरे नसीब में ‘सुब्रत’
पर कोई भी शख़्स तुम-सा क्यों नहीं होता.....
~©अनुज सुब्रत
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