से पुछा मैंने
पिता की ऐहमियत ,
जानता है कोई तो
भरी महफ़िल से
आवाज आई
हाँ जानता हूँ मैं
हाँ जानता हूँ मैं ,
इसी पर एक छोटी-सी
कहानी शुरु होती है
पिता के प्रति बच्चों एक
मुँह-जुबानी शुरु होती है.....
माँ जब नानी के घर ,
चली जाती थी तो
पिता ही रोटियाँ बना के
हमे खिलाते थे
जब माँ की याद,
आती थी तो
पिता ही पल-भर में
माँ बन जाते थे।
यूँ पिता के साथ
एक अज़ीब -सा
रिश्ता था
पल-भर में दोस्त, तो
पल-भर में फ़रिश्ता थे .....
पिता न होते तो
शायद ये जग सुना था
कैसे बताऊँ,
पिता की बाते
पिता के बिना ये घर भी
सुना-सुना था।
कभी कंधे पे बैठा
यूँ मुस्कुराते थे
कैसे बताऊँ
इसी बात पे तो पिता
हम सबको भाते थे....
कुल्फी के ठेले पे
बैठा हमे
यूँ कुल्फियाँ हमे दिलाते थे
इसी बात पे तो पिता
हम सबको बहुत भाते थे....
शायद ये जो कुछ भी
लिख रहा हूँ मै
उनकी ही बदौलत है
आज फ़िर भरी महफ़िल में
उनसे मिलने की दिलायत है....
यूँ तो ना कहना, पर
पिता के लिए लफ्ज़ ना है मेरे
पास में
पर वह तो बसे है
मेरे दिल और साँस में.....
बस इतनी-सी बात पे
अपने लफ्ज़ो को विराम देता हूँ
हर पिता को यह अरमान देता हूँ
की
हर माँ के बदले में आते हो तुम
कैसे बताऊँ
इसी बात पे तो हम सबको
बहुत भाते हो तुम .....
~ अनुज सुब्रत
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